Wednesday, May 26, 2010

मत कोसो अंधेरों को


मत कोसो अंधेरों को
वो जो देखती है अंधेरों को
कौन सी हैं आँखें वो ...जो दिखाती है राह अंधेरों में
कुछ नहीं दिख रहा ... अक्सर कहते हैं हम
दृश्य बस अँधेरा ही अँधेरा ..
कैसा भ्रम है ये
दिख रहा है अँधेरा..
फिर भी कहते हैं हम ...कुछ नहीं दिख रहा
सच तो ये है
अँधेरा ही दिखाता है हमें वो सब
जो हम नहीं देखना चाहतें हैं उजालों में
....खोलकर अपना मन ..पूरी तरह
सब कुछ नज़र आता है साफ़
हमारा अपना अँधेरा अंतर का
अलग अलग ढेर ...
अलग अलग नाम...
अलग अलग आवरण...
ओढ़े हुवे छिपाने के लिए
अपना सत्य...जो डराता है हर पल
आँखे मूंदुं तो डर लगता है खुद से..
आँखे खोलू तो डर लगता है जग से...
ऐसे में..अँधेरा ही लगता है सच्चा ..साथी..दोस्त..
जो खोलता है हमारी आँखे...दिखाता है हमारा सच..
खोलता है वो राह..
जहाँ साफ़ नज़र आता है
सच साथ साथ चलता हुआ
अँधेरा कभी नहीं दिखाता है राह उंगली पकड़ कर
अँधेरा जगाता है हमारी अंतर्शक्ति
हम चलते ..हैं ...दौड़ते हैं स्वयं से
खोलते हैं प्रकाश द्वार ..
सचमुच अन्धेरें हैं हमारे दोस्त..
जब जब आये हमारे साथ..
दिखाते हैं कुछ नया...हमसे ही हमारे अंतर में ..
जिससे होतें हैं हम अनभिज्ञ ..
गौर से देखो नया... अपना ही अंतर ..
वो ही तो प्रकाश है..
जो जन्मा है अंधेरों के गर्भ से
सचमुच अन्धेरें ही हैं ...
जीवन का सत्य दर्शन..शाश्वत दर्शन ...
अँधेरे देते हैं जन्म प्रकाश को
अपना अस्तित्व खो कर
अन्धेरें ही खोलते हैं
चैतन्य शक्ति द्वार...अंतर मन में प्रकाश के..

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